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ख़ूब होनी है अब इस शहर में रुस्वाई मिरी - फ़रहत एहसास कविता - Darsaal

ख़ूब होनी है अब इस शहर में रुस्वाई मिरी

ख़ूब होनी है अब इस शहर में रुस्वाई मिरी

बीच बाज़ार उभर आई है तन्हाई मिरी

एक बार उस ने बुलाया था तो मसरूफ़ था मैं

जीते-जी फिर कभी बारी ही नहीं आई मिरी

अपनी ता'मीर के मलबे से पटा जाता हूँ

और पायाब हुई जाती है तन्हाई मिरी

ख़ाना-ए-वस्ल अज़ा-ख़ाना-ए-हस्ती कि जहाँ

गूँजती रहती है बस दर्द की शहनाई मिरी

दश्त-ए-ख़ामोशी में चलती है बहुत तेज़ हवा

दूर तक उड़ती हुई गर्द है गोयाई मिरी

ज़िंदगी साल छ-माही तू मिला कर आ कर

ग़ैरियत इतनी भला किस लिए माँ-जाई मिरी

मुंजमिद हो गया सारा मुतहर्रिक मेरा

मेरे पानी पे जमी बैठी है अब काई मिरी

'फ़रहत-एहसास' तग़ज़्ज़ुल से शराबोर हुआ

रात आग़ोश में कुछ यूँ ये ग़ज़ल आई मिरी

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