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ख़िलाफ़-ए-गर्दिश-ए-मा'मूल होना चाहता हूँ - फ़रहत एहसास कविता - Darsaal

ख़िलाफ़-ए-गर्दिश-ए-मा'मूल होना चाहता हूँ

ख़िलाफ़-ए-गर्दिश-ए-मा'मूल होना चाहता हूँ

मदद कर शहर-ए-ना-मक़्बूल होना चाहता हूँ

चलो अपनी तरफ़ से बंद कर लो मेरी आँखें

मैं अपने आप में मशग़ूल होना चाहता हूँ

तिरे क़दमों पे रख दी देख ये दस्तार मैं ने

कि अपने आप से माज़ूल होना चाहता हूँ

मैं रहना चाहता हूँ तेरे दामन से लिपट कर

सो तेरे रास्ते की धूल होना चाहता हूँ

सदा-ए-लम्स-ए-लब दे भी कि मैं ग़ुंचा सुख़न का

बहुत दिन हो गए अब फूल होना चाहता हूँ

तवज्जोह हूँ मगर मरकूज़ दुनिया पर हूँ कब से

अब आप अपनी तरफ़ मबज़ूल होना चाहता हूँ

बदन के हाथ का लिक्खा हुआ हूँ इश्क़-नामा

और अपनी रूह को मौसूल होना चाहता हूँ

मुझे घर भी चलाना है अब अपना 'फ़रहत-एहसास'

तो कुछ दिन के लिए माक़ूल होना चाहता हूँ

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