कैसी बला-ए-जाँ है ये मुझ को बदन किए हुए
कैसी बला-ए-जाँ है ये मुझ को बदन किए हुए
मिट्टी के इस बिदेस को अपना वतन किए हुए
मेरे लब-ए-वजूद पर सूखे पड़े हुए हैं लफ़्ज़
मौजों ज़माना हो गया उस से सुख़न किए हुए
आया था इक गुल-ए-विसाल दामन-ए-हिज्र में कभी
मैं हूँ उस एक फूल को अपना चमन किए हुए
उस की तरफ़ से आज तक शोर न ख़ामुशी कोई
कब से हूँ उस ख़ला की सम्त रू-ए-सुख़न किए हुए
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