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जिस्म की क़ैद से सब रंग तुम्हारे निकल आए - फ़रहत एहसास कविता - Darsaal

जिस्म की क़ैद से सब रंग तुम्हारे निकल आए

जिस्म की क़ैद से सब रंग तुम्हारे निकल आए

मेरी दस्तक से तो तुम और भी प्यारे निकल आए

उस के पानी ने दिया हुक्म तो हम डूब गए

उस की मिट्टी ने पुकारा तो किनारे निकल आए

इश्क़ पहुँचा जो मिरे जिस्म के दरवाज़े पर

ख़ैर-मक़्दम के लिए ख़ून के धारे निकल आए

उस की आँखों ने यक़ीं कुछ न दिलाया फिर भी

शेर कहने के लिए कुछ तो इशारे निकल आए

शहर की भीड़ में गुम हो गए सारे मा'शूक़

ख़ैर से इश्क़ मियाँ तुम तो हमारे निकल आए

'फ़रहत-एहसास' तो बस डूब गए थे लेकिन

बीच मंजधार में दो-चार किनारे निकल आए

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