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झगड़े ख़ुदा से हो गए अहद-ए-शबाब में - फ़रहत एहसास कविता - Darsaal

झगड़े ख़ुदा से हो गए अहद-ए-शबाब में

झगड़े ख़ुदा से हो गए अहद-ए-शबाब में

तब से गिरे पड़े हैं जहान-ए-ख़राब में

कब का वो जा चुका था खुली आँख जब मिरी

मैं उस को देखता ही रहा जैसे ख़्वाब में

रंगीनी-ए-लिबास का जम्म-ए-ग़फ़ीर है

शायद कि मैं न आऊँ तिरे इंतिख़ाब में

मुझ पर ज़कात हुस्न-ए-सुख़न की हुई है फ़र्ज़

शामिल हुआ हूँ शेर के अहल-ए-निसाब में

उट्ठो कि आईना भी कहीं का कहीं गया

रह जाओगे यहीं जो रहोगे हिजाब में

शायद क़लम दवात की फ़ुर्सत न हो उसे

मेरे ही ख़त को भेज दिया है जवाब में

छुप-छुप के देखता था तग़ाफ़ुल की आड़ में

उस ने बरत लिया है मुझे इज्तिनाब में

वो शम-ए-इंतिज़ार की लौ कर गया मुझे

मैं रौशनी-ए-तबअ से हूँ पेच-ओ-ताब में

आईं हवाएँ दूर से बाग़-ए-बहिश्त की

ख़ुश्बू भी आई देर से कार-ए-सवाब में

आईना-ए-निगाह में तालीम और थी

बर-अक्स हो गया जो लिखा था किताब में

मैं रहने वाला शाम ओ सहर के परे का हूँ

डाला गया हूँ शाम ओ सहर के हिसाब में

इस बे-हिसी के बीच में 'एहसास' की ग़ज़ल

देखो तो ये सुकूत सुख़न के जवाब में

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