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इश्क़ में कितने बुलंद इम्कान हो जाते हैं हम - फ़रहत एहसास कविता - Darsaal

इश्क़ में कितने बुलंद इम्कान हो जाते हैं हम

इश्क़ में कितने बुलंद इम्कान हो जाते हैं हम

इक बदन होते हुए दो जान हो जाते हैं हम

इक नई तहज़ीब ले कर आने वाला है जुनूँ

उस के इस्तिक़बाल में वीरान हो जाते हैं हम

सारी गिर्हें खोल देता है ये आब-ए-ख़ुश-विसाल

इश्क़ कर के किस क़दर आसान हो जाते हैं हम

साहब-ए-ख़ाना बना आता है जब आता है इश्क़

और अपने घर में ख़ुद मेहमान हो जाते हैं हम

अपनी आग़ोश-ए-रवाँ में ग़ुस्ल कर लेने दे यार

ग़ुस्ल कर के इक नए इंसान हो जाते हैं हम

हम जो ये सामान घर लाते हैं ख़ुद को बेच कर

एक दिन घर का यही सामान हो जाते हैं हम

उस की आँखों के इशारे करते रहते हैं रक़म

धीरे धीरे साहब-ए-दीवान हो जाते हैं हम

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