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हम ने परिंद-ए-वस्ल के पर काट डाले हैं - फ़रहत एहसास कविता - Darsaal

हम ने परिंद-ए-वस्ल के पर काट डाले हैं

हम ने परिंद-ए-वस्ल के पर काट डाले हैं

जज़्बात उठा रहे थे जो सर काट डाले हैं

लिखनी थी हम को एक नई दास्तान-ए-हिज्र

सब वाक़िआ'त-ए-दीदा-ए-तर काट डाले हैं

बैठी रहे उसी क़फ़स-ए-उंसरी में अब

तेग़-ए-बदन ने रूह के पर काट डाले हैं

अब शेर ज़ोर-ए-बे-हुनरी से लिखेंगे हम

दुनिया ने सारे दस्त-ए-हुनर काट डाले हैं

जी चाहता है दस्त-ए-तरक़्क़ी को काट दूँ

जिस ने हमारे सारे शजर काट डाले हैं

नक़्क़ाद-ए-ख़ुश्क-ज़ौक़ के घर हो रहा है जश्न

आज उस ने सारे मिस्रा-ए-तर काट डाले हैं

शमएँ मुकाशफ़ात-ए-बदन की जलानी थीं

सब मा'रिफ़त के तार-ए-नज़र काट डाले हैं

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