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हम अपना इस्म ले कर शहर-ए-सिफ़त से निकले - फ़रहत एहसास कविता - Darsaal

हम अपना इस्म ले कर शहर-ए-सिफ़त से निकले

हम अपना इस्म ले कर शहर-ए-सिफ़त से निकले

फिर मारिफ़ा-ओ-नकरा सारे लुग़त से निकले

लफ़्ज़ों में उस ने अपने आईने रख दिए थे

पर्दा-नशीं के सारे अक्स उस के ख़त से निकले

क्या रास्ती हमारी अपनी कजी से निकली

हम क्या दुरुस्त हो कर अपने ग़लत से निकले

कज-फ़हमियों ने जितनी हजवें लिखीं हमारी

हम उतने ही ज़ियादा अपनी लिखत से निकले

बाहर गली में भारी फ़ौज-ए-ख़ुदा पड़ी थी

हम काफ़िर-ए-मोहब्बत नाचार छत से निकले

हम जो बचा बचा के रखते रहे थे ख़ुद को

कंगाल हो के आख़िर अपनी बचत से निकले

काटा गया था हम को इक ख़ास ज़ाविए से

ये शे'र सब क़लम के उस ख़ास क़त से निकले

बेचा है कौड़ियों के मोल अपना माल सारा

और इस तरह ख़ुद अपनी बढ़ती खपत से निकले

सूफ़ी थे हम मगर थे रूहानियत के क़ैदी

आख़िर को अपनी मिट्टी की मा'रिफ़त से निकले

जुग़राफ़िया थीं या फिर तारीख़ सारी जिहतें

हम हो के 'फ़रहत-एहसास' अपनी जिहत से निकले

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