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हर इक जानिब उन आँखों का इशारा जा रहा है - फ़रहत एहसास कविता - Darsaal

हर इक जानिब उन आँखों का इशारा जा रहा है

हर इक जानिब उन आँखों का इशारा जा रहा है

हमें किन इम्तिहानों से गुज़ारा जा रहा है

किनारे को बचाऊँ तो नदी जाती है मुझ से

नदी को थामता हूँ तो किनारा जा रहा है

मैं डूबा जा रहा हूँ उन सदाओं के भँवर में

मुझे अब चारों जानिब से पुकारा जा रहा है

तआ'क़ुब मत करो उस के बदन की रौशनी का

कि ये तो सिर्फ़ उस का इस्तिआरा जा रहा है

ये सारा खेल फ़त्ह-ए-शाह का है जिस की ख़ातिर

प्यादों जैसे इंसानों को हारा जा रहा है

अब उस रुख़्सार का तिल है अलामत उस भँवर की

जहाँ सारा समरक़ंद-ओ-बुख़ारा जा रहा है

मिरे अशआ'र हैं वो आसमानी ख़्वाब जिन को

मिरी मिट्टी के होंठों पर उतारा जा रहा है

वहीं चश्म-ओ-लब-ओ-रुख़सार भी जाते हैं उस के

जहाँ ये हुस्न का सारा इदारा जा रहा है

मैं साहिल हो गया हूँ जब से वो दरिया हुआ है

नज़र ठहरी हुई है और नज़ारा जा रहा है

तो क्या ये वस्ल की शब है कि जब घर से बिछड़ के

न जाने किस के घर मेरा सितारा जा रहा है

अलम-बरदार तन्हाई था अपना 'फ़रहत-एहसास'

हुजूम-ए-शहर के हाथों जो मारा जा रहा है

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