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हमेशा का ये मंज़र है कि सहरा जल रहा है - फ़रहत एहसास कविता - Darsaal

हमेशा का ये मंज़र है कि सहरा जल रहा है

हमेशा का ये मंज़र है कि सहरा जल रहा है

पर अब हैरत तो उस पर है कि दरिया जल रहा है

तुम्हें फ़ुर्सत हो जीने से तो अपने पार देखो

पस-ए-दीवार-ए-अय्याम इक ज़माना जल रहा है

ज़रा सी देर को शाने से अपना सर हटा ले

तिरे रुख़्सार के शो'लों से शाना जल रहा है

सफ़र करना है अगली सुब्ह और गर्मी-ए-पा से

मिरे बिस्तर का सारा पाइताना जल रहा है

पिघल कर गिर रहे हैं मेरे सर पर चाँद तारे

सुना है आसमाँ का शामियाना जल रहा है

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