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हमें जब अपना तआरुफ़ कराना पड़ता है - फ़रहत एहसास कविता - Darsaal

हमें जब अपना तआरुफ़ कराना पड़ता है

हमें जब अपना तआरुफ़ कराना पड़ता है

न जाने कितने दुखों को दबाना पड़ता है

बहुत से हँसते हुओं को लगा के रोने पर

बहुत से रोते होऊँ को हँसाना पड़ता है

किसी को नींद न आती हो रौशनी में अगर

तो ख़ुद चराग़-ए-मोहब्बत बुझाना पड़ता है

किसी के क़ुर्ब की ख़्वाहिश में यूँ भी होता है

कि उम्र-भर के लिए दूर जाना पड़ता है

ग़ज़ाल-ए-हुस्न को घर चाहिए पर उस के लिए

ख़ुद अपने आप को सहरा बनाना पड़ता है

तुम इस तरफ़ से जो गुज़रो तो इतना याद रहे

कि इस नवाह में हम सा दिवाना पड़ता है

किसी सदा पे भी जाते नहीं मियाँ 'एहसास'

पर आँसुओं के बुलावे पे जाना पड़ता है

अब आ रहा हो कोई हुस्न उस तसव्वुफ़ से

तो हम को हल्का-ए-बैअत बढ़ाना पड़ता है

ख़ुदा है क़ादिर-ए-मुतलक़ ये बात खुलती है तब

जब उस से काम कोई काफ़िराना पड़ता है

बहुत ज़ियादा हैं ख़तरे बदन की महफ़िल में

पर अपनी एक ही महफ़िल है जाना पड़ता है

हमारे पास यही शाइ'री का सिक्का है

उलट-पलट के इसी को चलाना पड़ता है

अजीब तर्ज़-ए-तग़ज़्ज़ुल है ये मियाँ 'एहसास'

कि जिस्म-ओ-रूह को इक साथ गाना पड़ता है

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