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हद्द-ए-बदन में मेरी ज़ात आ नहीं रही है - फ़रहत एहसास कविता - Darsaal

हद्द-ए-बदन में मेरी ज़ात आ नहीं रही है

हद्द-ए-बदन में मेरी ज़ात आ नहीं रही है

भागी हुई है ऐसी हाथ आ नहीं रही है

इक साथ कर रहा हूँ इतनी बहुत सी बातें

होंठों पे कहने वाली बात आ नहीं रही है

सूरज मिरा पड़ा है आँखों के रास्ते में

दिन ढल चुका है कब का रात आ नहीं रही है

बाज़ार में घिरा हूँ और शोर हो रहा है

मेरी समझ में कोई बात आ नहीं रही है

दुनिया से बात कर के बद-ज़ात हो गया मैं

अब मेरे घर मिरी ही ज़ात आ नहीं रही है

जिस रात फ़रहत-एहसास अपनी हदों से निकले

वो माँ की कोख जैसी रात आ नहीं रही है

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