हद्द-ए-बदन में मेरी ज़ात आ नहीं रही है
हद्द-ए-बदन में मेरी ज़ात आ नहीं रही है
भागी हुई है ऐसी हाथ आ नहीं रही है
इक साथ कर रहा हूँ इतनी बहुत सी बातें
होंठों पे कहने वाली बात आ नहीं रही है
सूरज मिरा पड़ा है आँखों के रास्ते में
दिन ढल चुका है कब का रात आ नहीं रही है
बाज़ार में घिरा हूँ और शोर हो रहा है
मेरी समझ में कोई बात आ नहीं रही है
दुनिया से बात कर के बद-ज़ात हो गया मैं
अब मेरे घर मिरी ही ज़ात आ नहीं रही है
जिस रात फ़रहत-एहसास अपनी हदों से निकले
वो माँ की कोख जैसी रात आ नहीं रही है
(733) Peoples Rate This