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घर में चीज़ें बढ़ रही हैं ज़िंदगी कम हो रही है - फ़रहत एहसास कविता - Darsaal

घर में चीज़ें बढ़ रही हैं ज़िंदगी कम हो रही है

घर में चीज़ें बढ़ रही हैं ज़िंदगी कम हो रही है

धीरे धीरे घर की अपनी रौशनी कम हो रही है

शहर के बाज़ार की रौनक़ में दिल बुझने लगे हैं

ख़ूब ख़ुश होने की ख़्वाहिश में ख़ुशी कम हो रही है

अब किसी को भी छुओ लगता है पहले से छुआ सा

वो जो थी पहले-पहल की सनसनी कम हो रही है

तय-शुदा लफ़्ज़ों में करते हैं हम इज़हार-ए-मोहब्बत

अब तो पहले इश्क़ में भी अन-कही कम हो रही है

ले गया ये शहर उस को मेरे पहलू से उठा कर

मुझ को लगता है मिरी दीवानगी कम हो रही है

हुस्न का बाज़ार आना जाना भी कुछ बढ़ रहा है

कुछ मिरी आँखों की भी पाकीज़गी कम हो रही है

वक़्त डंडी मारता है तोलने में मेरा हिस्सा

दिन भी छोटे पड़ रहे हैं रात भी कम हो रही है

शहर की कोशिश कि ख़ुद को और पेचीदा बना ले

मेरी ये तशवीश मेरी सादगी कम हो रही है

साहिलों की बस्तियाँ ये देख कर ख़ामोश क्यूँ हैं

बस्तियों के फैलने से ही नदी कम हो रही है

शाम आते ही तुम्हें रहती है घर जाने की जल्दी

'फ़रहत-एहसास' इन दिनों आवारगी कम हो रही है

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