एक ग़ज़ल कहते हैं इक कैफ़िय्यत तारी कर लेते हैं
एक ग़ज़ल कहते हैं इक कैफ़िय्यत तारी कर लेते हैं
यूँ दुनिया पर अगली चढ़ाई की तय्यारी कर लेते हैं
कितनी मोहब्बत करता है वो कैसे कहें गर पूछ ले कोई
सो आदाद-ओ-शुमार की ख़ातिर ज़ख़्म-शुमारी कर लेते हैं
उस के ख़्वाब उठाए नहीं उठते हल्की-फुल्की आँखों से
ऐसे में हम रातें जाग के पलकें भारी कर लेते हैं
बहुत ज़ियादा सेह्हत-मंदी एक तरह की बे-अदबी है
उस से मिलने जाते हैं तो कुछ बीमारी कर लेते हैं
जब भी लहू में रंग-ए-ख़िज़ाँ की सख़्ती बढ़ने लग जाती है
चंद लब ओ रुख़्सार बुला कर जश्न-ए-बहारी कर लेते हैं
सब्ज़ा-ए-जाँ के हरा-भरा रहने की एक यही सूरत है
सूखा पड़ते ही आँखों की नहरें जारी कर लेते हैं
इतना माल कहाँ कि दुकाँ बाज़ार-ए-मोहब्बत में ले पाएँ
छोटा-मोटा कारोबार-ए-तह-बाज़ारी कर लेते हैं
आतिश-ए-शौक़ सिवा करने को मुँह फेरे रहते हैं उस से
हम से सादा-लौह भी अक्सर ये हुश्यारी कर लेते हैं
नख़्ल-ए-उमीद हरा हो जाता है अक्सर बारान-ए-करम से
सो हम अक्सर उस के दर पर ख़ुद को भिकारी कर लेते हैं
वो सिर्फ़ एक के पास ही रह के चला जाए तो ख़ैर नहीं है
रूह ओ बदन ऐसे मौक़ों पर मारा-मारी कर लेते हैं
पाँव हवा जैसे हैं हमारे जिन का नक़्श नहीं रह पाता
शादी-शुदा हर राहगुज़र कुछ दिन में कुँवारी कर लेते हैं
अफ़सर-ए-दुनिया सख़्त सही 'फ़रहत-एहसास' हैं आख़िर हम भी
दफ़्तर में भी अपनी सी कुछ कार-गुज़ारी कर लेते हैं
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