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दिनी हैं सब कोई राती नहीं है - फ़रहत एहसास कविता - Darsaal

दिनी हैं सब कोई राती नहीं है

दिनी हैं सब कोई राती नहीं है

अंधेरों का कोई साथी नहीं है

तो क्या बे-ख़्वाब ही रह जाऊँगा मैं

मुझे तो नींद ही आती नहीं है

कि हर बीमार उन आँखों से दवा पाए

शिफा-ख़ाना ये ख़ैराती नहीं है

लगा है कितना सरमाया ज़बाँ का

ये कार-ए-शाइ'री ज़ाती नहीं है

तराशी जा चुकी उम्मीद की लौ

दिया जलता हुआ बाती नहीं है

सदा जाती तो है उस की गली में

वहाँ से ले के कुछ आती नहीं है

अकेले पड़ गए हम कारवाँ में

कि अब के वो मिरा साथी नहीं है

लगे हैं सारे साज़िंदे बदन के

मगर ये रूह नग़माती नहीं है

रहेगा बे-बदन ही 'फ़रहत-एहसास'

हवा पर कोई देह आती नहीं है

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