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दिन ने इतना जो मरीज़ाना बना रक्खा है - फ़रहत एहसास कविता - Darsaal

दिन ने इतना जो मरीज़ाना बना रक्खा है

दिन ने इतना जो मरीज़ाना बना रक्खा है

रात को हम ने शिफ़ा-ख़ाना बना रक्खा है

इंतिक़ाम ऐसा लिया है मिरी तन्हाई ने

शहर का शहर बयाबाना बना रक्खा है

ख़ाक का ख़ाना ग़रीबाना-बदन है कि जिसे

रौनक़-ए-इश्क़ ने शाहाना बना रक्खा है

हम को मा'लूम है ख़ूब अपनी हक़ीक़त सो उसे

उसी उन्वान का अफ़्साना बना रक्खा है

मुब्तज़िल होने का आप अपना मज़ा है वर्ना

हम ने भी ख़ुद को हकीमाना बना रक्खा है

आदमी हो कि ख़ुदा सब का बराबर है वज़्न

इश्क़ ने एक ही पैमाना बना रक्खा है

चाक कर कर के हुए तंग तो दीवानों ने

चाक को अब के गरीबाना बना रक्खा है

'फ़र्हतुल्लाह' है वो अक़्ल का पुतला जिस ने

फ़रहत-एहसास को दीवाना बना रक्खा है

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