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चाकरी में रह के इस दुनिया की मोहमल हो गए थे - फ़रहत एहसास कविता - Darsaal

चाकरी में रह के इस दुनिया की मोहमल हो गए थे

चाकरी में रह के इस दुनिया की मोहमल हो गए थे

हम तभी तो देखते ही उस को पागल हो गए थे

जिस्म से बाहर निकल आए थे हम उस की सदा पर

एक लम्हे को तो सारे मसअले हल हो गए थे

इश्क़ मक़नातीस पर सब जमा थे ज़र्रे हमारे

मुंतशिर मिट्टी के मंसूबे मुकम्मल हो गए थे

मेरे हर मिस्रे पे उस ने वस्ल का मिस्रा लगाया

सब अधूरे शेर शब भर में मुकम्मल हो गए थे

दर-ब-दर नाकाम फिरती थी सियह-बख़्ती हमारी

और हम घबरा के उन आँखों में काजल हो गए थे

मैं मकान-ए-वस्ल में पहुँचा तो वो ख़ाली पड़ा था

और दरवाज़े भी बाहर से मुक़फ़्फ़ल हो गए थे

गर्द उड़ाती जा रही थी तेज़-रफ़्तारी हमारी

हम-सफ़र सब दूर तक आँखों से ओझल हो गए थे

'फ़रहत-एहसास' एक दम आशिक़ हुए थे जाने किस के

देखते ही देखते आँखों से ओझल हो गए थे

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