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बे-रंग बड़े शहर की हस्ती भी वहीं थी - फ़रहत एहसास कविता - Darsaal

बे-रंग बड़े शहर की हस्ती भी वहीं थी

बे-रंग बड़े शहर की हस्ती भी वहीं थी

इक रंग उड़ाती हुई तितली भी वहीं थी

बाज़ार के जादू की न थी काट मिरे पास

जो चीज़ बुरी थी वही अच्छी भी वहीं थी

बस इक तिरा चेहरा ही न था महफ़िल-ए-गुल में

बेला भी था चम्पा भी चमेली भी वहीं थी

इस बाढ़ में करता था जहाँ भी मैं किनारा

अंदर से उबलती मिरी नद्दी भी वहीं थी

सैलाब-ए-बदन उस का जो आया तो गया मैं

हर चंद मिरे जिस्म की कश्ती भी वहीं थी

ऐ इश्क़ जहाँ तू ने मुझे जम्अ किया था

मिट्टी मिरी आख़िर को बिखरनी भी वहीं थी

अफ़सोस गई क़ब्र भी 'एहसास'-मियाँ की

ये क़ब्र जहाँ थी मिरी मिट्टी भी वहीं थी

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