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असीर-ए-ख़ाक भी हूँ ख़ाक से रिहा भी हूँ मैं - फ़रहत एहसास कविता - Darsaal

असीर-ए-ख़ाक भी हूँ ख़ाक से रिहा भी हूँ मैं

असीर-ए-ख़ाक भी हूँ ख़ाक से रिहा भी हूँ मैं

मैं जी रहा हूँ तो देखो मरा पड़ा भी हूँ मैं

मैं एक लम्हा-ए-हाज़िर बिला-सियाक़-ओ-सबाक़

और अपने लम्हा-ए-हाज़िर का हाफ़िज़ा भी हूँ मैं

मैं एक फ़र्द-ए-सफ़-आरा मुआ'शरे के ख़िलाफ़

और एक फ़र्द में पूरा मुआ'शरा भी हूँ मैं

निकल भी आया हूँ उस कूचा-ए-तग़ाफ़ुल से

और उस के दर पे बहुत सा पड़ा हुआ भी हूँ मैं

मैं अपनी ख़ाक में लत-पथ पड़ा हुआ हूँ अभी

मगर न भूल कि पर्वर्दा-ए-हवा भी हूँ मैं

किसी भी लफ़्ज़ के जैसा नहीं है लफ़्ज़ मिरा

इधर-उधर से बहुत सा कहा-सुना भी हूँ मैं

अगरचे ठीक से बंदा भी मैं नहीं 'एहसास'

मगर कभी कभी इक लम्हा-ए-ख़ुदा भी हूँ मैं

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