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आया ज़रा सी देर रहा ग़ुल गया बदन - फ़रहत एहसास कविता - Darsaal

आया ज़रा सी देर रहा ग़ुल गया बदन

आया ज़रा सी देर रहा ग़ुल गया बदन

अपनी उड़ाई ख़ाक में ही रुल गया बदन

ख़्वाहिश थी आबशार-ए-मोहब्बत में ग़ुस्ल की

हल्की सी इक फुवार में ही घुल गया बदन

ज़ेर-ए-कमान दिल था तो थोड़ी सी थी उमीद

अब तो हमारे हाथ से बिल्कुल गया बदन

अब देखता हूँ मैं तो वो अस्बाब ही नहीं

लगता है रास्ते में कहीं खुल गया बदन

मैं ने भी एक दिन उसे ताराज कर दिया

मुझ को हलाक करने पे जब तुल गया बदन

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