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जल्वा है वो कि ताब-ए-नज़र तक नहीं रही - फ़रहत अब्बास कविता - Darsaal

जल्वा है वो कि ताब-ए-नज़र तक नहीं रही

जल्वा है वो कि ताब-ए-नज़र तक नहीं रही

देखा उसे तो अपनी ख़बर तक नहीं रही

एहसास पर गराँ रहा एहसास का तिलिस्म

ये उम्र की तकान सफ़र तक नहीं रही

जिन पर तुम्हारे आने से खिलते रहे गुलाब

अब दिल में ऐसी राहगुज़र तक नहीं रही

इक दिन वो घर से निकले नहीं सैर के लिए

अब ख़्वाहिश-ए-नुमू में सहर तक नहीं रही

जिस को छुआ था हम ने कड़ी धूप झेल कर

वो छाँव भी तो ज़ेर-ए-शजर तक नहीं रही

ख़ुश है वो आँख कार-ए-मसीहाई छोड़ कर

तासीर उस की ज़ख़्म-ए-जिगर तक नहीं रही

तुम कैसे मौसमों में हमें मिलने आए हो

पेड़ों पे अब तो शाख़-ए-समर तक नहीं रही

'फ़रहत' मैं दस्तकें लिए हाथों में रह गया

मेरी रसाई अब तिरे दर तक नहीं रही

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