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तू मिरी इब्तिदा तू मिरी इंतिहा मैं समुंदर हूँ तू साहिलों की हवा - फ़रहान सालिम कविता - Darsaal

तू मिरी इब्तिदा तू मिरी इंतिहा मैं समुंदर हूँ तू साहिलों की हवा

तू मिरी इब्तिदा तू मिरी इंतिहा मैं समुंदर हूँ तू साहिलों की हवा

तेरी मंज़िल बने मेरा हर रास्ता मैं समुंदर हूँ तू साहिलों की हवा

रोज़-ओ-शब मौज-दर-मौज हूँ दर-ब-दर रोज़-ओ-शब साहिलों पर पटकता हूँ सर

हाथ आता नहीं फिर भी दामन तिरा मैं समुंदर हूँ तू साहिलों की हवा

मेरी शोरीदगी के ये तूफ़ान सब मेरी ख़ामोशियों के ये अरमान सब

कुछ नहीं इक तिरी आरज़ू के सिवा मैं समुंदर हूँ तू साहिलों की हवा

तू ही मंज़िल मिरी तू ही हद है मिरी तुझ से वाबस्तगी नाम-ज़द है मिरी

तू न हो गर तो मैं ख़ुद में खो जाऊँगा मैं समुंदर हूँ तू साहिलों की हवा

ख़ुशबुओं से तिरी ये महकता सफ़र यूँ ही जारी रहेगा मिरे औज पर

तू मसाफ़त मिरी मैं तिरा रास्ता मैं समुंदर हूँ तू साहिलों की हवा

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