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शिकस्त-ए-आसमाँ हो जाऊँगा मैं - फ़रहान सालिम कविता - Darsaal

शिकस्त-ए-आसमाँ हो जाऊँगा मैं

शिकस्त-ए-आसमाँ हो जाऊँगा मैं

ज़मीं को ओढ़ कर सो जाऊँगा मैं

ख़लाओं में मुझे ढूँडा करोगे

नज़र से दूर जब हो जाऊँगा मैं

तड़प जिस की बना देती है पागल

वो याद-ए-हम-सफ़र हो जाऊँगा मैं

तुम्हारी आँख हो जाएगी ज़ख़्मी

जहाँ की गर्द में खो जाऊँगा मैं

मिरे सज्दे कभी रुस्वा न होंगे

तुम्हारा संग-ए-दर हो जाऊँगा मैं

तिरी सहरा-नवर्दी पर हँसेंगे

वो जंगली फूल जो बो जाऊँगा मैं

गुज़र कर दश्त से 'सालिम' जुनूँ के

सफ़र की आबरू हो जाऊँगा मैं

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