मता-ए-दर्द मआल-ए-हयात है शायद
मता-ए-दर्द मआल-ए-हयात है शायद
दिल-ए-शिकस्ता मिरी काएनात है शायद
बस इक नक़ाब थी वो सुब्ह-ए-नौ के चेहरा पर
हम इस फ़रेब में उलझे कि रात है शायद
ख़िरद की हद भी मिली है जुनून पर आ कर
जुनून क़हर-ए-ख़िरद से नजात है शायद
ये इक ख़लिश कि मुसलसल सता रही है मुझे
कि लब वो काँपे हैं क्यूँ कोई बात है शायद
उन्हें गुमाँ कि मुझे उन से रब्त है 'सालिम'
मुझे ये वहम उन्हें इल्तिफ़ात है शायद
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