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रग-ओ-पै में सरायत कर गया वो - फ़रीद परबती कविता - Darsaal

रग-ओ-पै में सरायत कर गया वो

रग-ओ-पै में सरायत कर गया वो

मुझी को मुझ से रुख़्सत कर गया वो

न ठहरा कोई मौसम वस्ल-ए-जाँ का

मुतअय्यन राह फ़ुर्क़त कर गया वो

मन ओ तू की गिरी दीवार सर पर

बयाँ कैसी हक़ीक़त कर गया वो

दरून-ए-ख़ाना से ग़ाफ़िल है लेकिन

बरून-ए-ख़ाना ज़ीनत कर गया वो

सर-ए-शब ही में अक्सर जल बुझा हूँ

हर इक ख़्वाहिश को लत-पत कर गया वो

हवादिस का वो तुंद ओ शोख़ झोंका

समर दिल का अकारत कर गया वो

मता-ए-ग़म छुपा कर क्यूँ न रक्खूँ

हवाले ये अमानत कर गया वो

तुम्हें भी भूलने की कोशिशें कीं

कि ख़ुद पर भी क़यामत कर गया वो

सुकूँ-आमेज़ लम्हों में 'फ़रीद' अब

फ़रोग़-ए-रंज-ओ-मेहनत कर गया वो

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