हमा-जिहत मिरी तलब जिस की मिसाल अब नहीं
हमा-जिहत मिरी तलब जिस की मिसाल अब नहीं
तिरा ख़याल है मगर अपना ख़याल अब नहीं
शौक़ का बहर-ए-बे-कराँ महव-ए-सुकूत-ए-जावेदाँ
इस में न कोई जोश अब इस में उबाल अब नहीं
ग़म की ज़मीं पे आसमाँ बाक़ी रहा न ऐ मियाँ
दिल की ये सोगवारियाँ रू-ब-ज़वाल अब नहीं
अब न हरीम-ए-नाज़ से होगा तुलू आफ़्ताब
क़ुर्ब-ए-जमाल तो गया लुत्फ़-ए-विसाल अब नहीं
दूर है रह हबीब की बात ये है नसीब की
जीना मुहाल हो गया मरना मुहाल अब नहीं
रक़्स-कुनाँ है वाँ हवस उस पे रही न दस्तरस
हुस्न-ए-मलीह साकिन-ए-शहर-ए-जमाल अब नहीं
तेरे करम पे जी रही कब से है मेरी कज-रवी
कोई जवाब अब नहीं कोई सवाल अब नहीं
ले के नई नई ग़ज़ल आ ही गए 'फ़रीद' अब
सुन ऐ चराग़-ए-अंजुमन तेरा ज़वाल अब नहीं
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