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हमा-जिहत मिरी तलब जिस की मिसाल अब नहीं - फ़रीद परबती कविता - Darsaal

हमा-जिहत मिरी तलब जिस की मिसाल अब नहीं

हमा-जिहत मिरी तलब जिस की मिसाल अब नहीं

तिरा ख़याल है मगर अपना ख़याल अब नहीं

शौक़ का बहर-ए-बे-कराँ महव-ए-सुकूत-ए-जावेदाँ

इस में न कोई जोश अब इस में उबाल अब नहीं

ग़म की ज़मीं पे आसमाँ बाक़ी रहा न ऐ मियाँ

दिल की ये सोगवारियाँ रू-ब-ज़वाल अब नहीं

अब न हरीम-ए-नाज़ से होगा तुलू आफ़्ताब

क़ुर्ब-ए-जमाल तो गया लुत्फ़-ए-विसाल अब नहीं

दूर है रह हबीब की बात ये है नसीब की

जीना मुहाल हो गया मरना मुहाल अब नहीं

रक़्स-कुनाँ है वाँ हवस उस पे रही न दस्तरस

हुस्न-ए-मलीह साकिन-ए-शहर-ए-जमाल अब नहीं

तेरे करम पे जी रही कब से है मेरी कज-रवी

कोई जवाब अब नहीं कोई सवाल अब नहीं

ले के नई नई ग़ज़ल आ ही गए 'फ़रीद' अब

सुन ऐ चराग़-ए-अंजुमन तेरा ज़वाल अब नहीं

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