गुफ़्तुगू किसी से हो तेरा ध्यान रहता है
टूट टूट जाता है सिलसिला तकल्लुम का
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ये कहाँ से मौज-ए-तरब उठी कि मलाल दिल से निकल गए
क्या हो गया कैसी रुत पलटी मिरा चैन गया मिरी नींद गई
पहुँच के हम सर-ए-मंज़िल जिन्हें भुला न सके
अभी मकाँ मैं अभी सू-ए-ला-मकाँ हूँ मैं
किस से वफ़ा की है उमीद कौन वफ़ा-शिआर है
हमें भी अपनी तबाही पे रंज होता है
शौक़ का सिलसिला बे-कराँ है
तल्ख़ गुज़रे कि शादमाँ गुज़रे
क्या बदल दोगे तुम इक नज़र से
ग़ुबार दिल पे बहुत आ गया है धो लें आज
न ग़ुरूर है ख़िरद को न जुनूँ में बाँकपन है