ये कहाँ से मौज-ए-तरब उठी कि मलाल दिल से निकल गए

ये कहाँ से मौज-ए-तरब उठी कि मलाल दिल से निकल गए

वही सुब्ह-ओ-शाम जो थे गराँ नफ़स-ए-बहार में ढल गए

ये दयार-ए-शौक़ है हम-नशीं यहाँ लग़्ज़िशों में भी हुस्न है

जो मिटे वो और उभर गए जो गिरे वो और सँभल गए

हसीं ज़िंदगी की तलाश थी हमें सरख़ुशी की तलाश थी

हुए ज़िंदगी से जो आश्ना तो जराहतों से बहल गए

तिरे सोगवारों की ज़िंदगी कभी मुतमइन न गुज़र सकी

जो बुझी कभी कोई तिश्नगी कई और दर्द मचल गए

मिरी आरज़ूओं के ख़्वाब थे कि फ़ज़ा-ए-हुस्न-ओ-शबाब थे

कहीं निकहतों में बिखर गए कहीं रंग-ओ-नूर में ढल गए

उन्हें राहतों का ख़याल है न सऊबतों का मलाल है

जो तिरी तलाश में चल पड़े जो तिरी तलब में निकल गए

है भरी बहार तो क्या करूँ न मिले क़रार तो क्या करूँ

मिरे सामने हैं वो आशियाँ जो भरी बहार में जल गए

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