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तल्ख़ गुज़रे कि शादमाँ गुज़रे - फ़रीद जावेद कविता - Darsaal

तल्ख़ गुज़रे कि शादमाँ गुज़रे

तल्ख़ गुज़रे कि शादमाँ गुज़रे

ज़िंदगी हो तो क्यूँ गराँ गुज़रे

था जहाँ मुद्दतों से सन्नाटा

हम वहाँ से भी नग़्मा-ख़्वाँ गुज़रे

मरहले सख़्त थे मगर हम लोग

सूरत-ए-मौजा-ए-रवाँ गुज़रे

मेरे ही दिल की धड़कनें होंगी

तुम मिरे पास से कहाँ गुज़रे

क्यूँ न ढल जाए मेरे नग़्मों में

क्यूँ तेरा हुस्न राएगाँ गुज़रे

चंद लम्हे ख़याल-ओ-ख़्वाब सही

चंद लम्हे अनीस-ए-जाँ गुज़रे

कितने ख़ामोश हादसे 'जावेद'

दिल ही दिल में निहाँ निहाँ गुज़रे

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