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हम जिसे समझते थे सई-ए-राएगाँ यारो - फ़रीद जावेद कविता - Darsaal

हम जिसे समझते थे सई-ए-राएगाँ यारो

हम जिसे समझते थे सई-ए-राएगाँ यारो

अब उसी से मिलना है अपना कुछ निशाँ यारो

रुक सके तो मुमकिन है नग़्मगी में ढल जाए

उठ रही है सीनों में शोरिश-ए-फ़ुग़ाँ यारो

क्या ख़याल है तुम को क्या मलाल है तुम को

पूछता कोई तुम से क्यूँ हूँ सरगिराँ यारो

बर्क़ से तसादुम का वक़्त आ ही जाएगा

ढूँडते रहोगे तुम बर्क़ से अमाँ यारो

सच से प्यार करने का हौसला नहीं है और

मस्लहत की राहों से दिल है बद-गुमाँ यारो

कुछ सुरूर तो होगा कोई नूर तो होगा

जिस से ज़ुल्मत-ए-शब में दिल है नग़्मा-ख़्वाँ यारो

कम-सबात होती है ताज़गी-ओ-रा'नाई

देर तक नहीं रहता सुब्ह का समाँ यारो

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