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बे-बाक अँधेरे - फ़रीद इशरती कविता - Darsaal

बे-बाक अँधेरे

जब कभी शब के तिलिस्मात में खो जाता हूँ

या तिरे हुस्न की आग़ोश में सो जाता हूँ

तेरी तस्वीर उभरती है पस-ए-पर्दा-ए-ख़्वाब

एक टूटे हुए बे-लौस सितारे की तरह

चीर कर सीना-ए-आफ़ाक़ की तारीक फ़ज़ा

अज़-राह-ए-वफ़ा तेरी तस्वीर उठा लेता हूँ

आरिज़-ओ-लब के जवाँ गीत चुरा लेता हूँ

दूर तक जादा-ए-फ़र्दा पे महक उठते हैं

उम्मीद के फूल ख़्वाब-ए-फ़र्दा के गुलाब

जगमगाते हैं मिरे दल के चराग़

और जब सरहद-ए-इदराक पे सीने से लगाए हुए तस्वीर तिरी

साँस लेता हूँ ठहर जाता हूँ

ना-गहाँ

आँधियाँ चलती हैं उड़ाती हुई धूल

ग़म के तूफ़ान मचल जाते हैं

तेरी तस्वीर के उभरे हुए सब नक़्श-ओ-निगार

जा के बेबाक अंधेरों से लिपट जाते हैं

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