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अफ़्साना-ए-शब-रंग - फ़रीद इशरती कविता - Darsaal

अफ़्साना-ए-शब-रंग

आरिज़-ए-गुल पे लरज़ती हुई बेकल शबनम

मुंतज़िर है कि चले बाद-ए-सहर

कोई झोंका

कोई सूरज की किरन

पास आ जाए तो अफ़्साना-ए-शब-रंग सुने

नग़्मा-ए-ज़हरा-ओ-नाहीद की झंकार सुने

बरबत-ए-सलमा के तारों की सदा-ए-दिलकश

आबशारों की निदा

ख़ारज़ारों की सदा

फूल के दिल की जलन सोज़िश-ए-महताब का हाल

डूबते तारों के ख़ामोश निगाहों का पयाम

नाला-ए-नीम-शबी

आह-ए-दिल-ए-ज़ार का हाल

आलम-ए-इश्क़-ओ-मोहब्बत की हिकायात सुने

पास आ जाए तो अफ़साना-ए-शबरंग सुने

और देखे किसी शाइ'र के फ़लक-बोस महल

किस तरह चाँद-सितारों को जनम देते हैं

किस तरह आरिज़-ए-गुलगूँ को रिदा-ए-शबनम

ढाँप लेती है सियह-रात के सन्नाटे में

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