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बिछड़ते दामनों में अपनी कुछ परछाइयाँ रख दो - फ़राज़ सुल्तानपूरी कविता - Darsaal

बिछड़ते दामनों में अपनी कुछ परछाइयाँ रख दो

बिछड़ते दामनों में अपनी कुछ परछाइयाँ रख दो

सुकूत-ए-ज़िंदगी में दिल की कुछ बे-ताबियाँ रख दो

कहीं ऐसा न हो मैं दूर ख़ुद अपने से हो जाऊँ

मेरी हस्ती के हंगामों में कुछ तन्हाइयाँ रख दो

मिरे अफ़्कार हो जाएँ न फ़र्सूदा ज़माने में

निगाहों से तुम अपने इन में कुछ गहराइयाँ रख दो

मिरा हर इज़्तिराब-ए-दिल निशाँ मंज़िल का बन जाए

तमन्नाओं में मेरी हुस्न की अंगड़ाइयाँ रख दो

रहे बाक़ी न फिर सूद ओ ज़ियाँ का मसअला कोई

मिरे ख़िर्मन में अपने हाथ से चिंगारियाँ रख दो

किसी को बख़्श दो इज़्ज़त किसी को सीम-ओ-ज़र दे दो

मिरे हिस्से में राह-ए-इश्क़ की रुस्वाइयाँ रख दो

किसी भी ग़ैर की जानिब नज़र उट्ठे 'फ़राज़' अब क्यूँ

निगाहों में तुम उस की अपनी सब रानाइयाँ रख दो

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