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भले बुझाने की ज़िद पे हवा उड़ी हुई है - फ़राज़ महमूद फ़ारिज़ कविता - Darsaal

भले बुझाने की ज़िद पे हवा उड़ी हुई है

भले बुझाने की ज़िद पे हवा उड़ी हुई है

मगर चराग़ की लौ और भी बढ़ी हुई है

मैं सोचता हूँ उसे सर पे रख लिया जाए

ज़मीन कब से मिरे पाँव में पड़ी हुई है

तुम्हारे लहजे की लुक्नत बता रही है मुझे

कि तुम ने ख़ुद से ही ये दास्ताँ गढ़ी हुई है

कोई बताए ग़ज़ाला को मैं शिकारी हूँ

वो बे-तकान मिरी राह में खड़ी हुई है

ये रंग रंग लिबासों में कुछ नहीं है 'फ़राज़'

कि सब की असल क़बा ख़ाक से जुड़ी हुई है

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