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ज़िंदगी चुपके से इक बात कहा करती है - फ़रह इक़बाल कविता - Darsaal

ज़िंदगी चुपके से इक बात कहा करती है

ज़िंदगी चुपके से इक बात कहा करती है

वक़्त के हाथों में कब डोर रहा करती है

सर्द सी शामों में चलती है उदासी की हवा

चाँदनी रात भी ख़ामोश रहा करती है

तुम तो आए हो गुलाबों के लिए देर के बा'द

क़र्या-ए-जाँ में तो अब ख़ाक उड़ा करती है

बे-सबब आँखों में आँसू भी नहीं आते अब

वहशत-ए-दिल भी कहीं दूर रहा करती है

रौशनी में तो नज़र आते हैं कितने साए

पर ये तारीकी तो साया भी जुदा करती है

हम भी खो जाएँगे इक रोज़ उफ़ुक़ पर यूँही

कब किसी से ये 'फ़रह' ज़ीस्त वफ़ा करती है

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