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ज़माना झुक गया होता अगर लहजा बदल लेते - फ़रह इक़बाल कविता - Darsaal

ज़माना झुक गया होता अगर लहजा बदल लेते

ज़माना झुक गया होता अगर लहजा बदल लेते

मगर मंज़िल नहीं मिलती अगर रस्ता बदल लेते

बहुत ताज़ा हवा आती बहुत से फूल खिल जाते

मकान-ए-दिल का तुम अपने अगर नक़्शा बदल लेते

ख़ता तुम से हुई आख़िर तुम्हारा क्या बिगड़ जाता

ये बाज़ी भी तुम्हारी थी अगर मोहरा बदल लेते

अभी तो आइने से है मुसलसल दोस्ती अपनी

शनासाई कहाँ रहती अगर चेहरा बदल लेते

मिरे हर्फ़ों के ये मोती मिरे हाथों बिखर जाते

ग़ुबार बे-यक़ीनी में अगर रस्ता बदल लेते

फ़लक के इस किनारे का वो लम्हा हम को मिल जाता

मिला था एक ही लम्हा अगर लम्हा बदल लेते

बहुत बे-रंग चेहरों पर बहुत से रंग आ जाते

किसी अच्छे फ़साने से अगर क़िस्सा बदल लेते

इसी ख़्वाहिश के दामन में वही सिक्के खनक उठते

सदा तब्दील कर लेते अगर कासा बदल लेते

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