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वो मेरे बारे में ऐसे भी सोचता कब था - फ़रह इक़बाल कविता - Darsaal

वो मेरे बारे में ऐसे भी सोचता कब था

वो मेरे बारे में ऐसे भी सोचता कब था

अगर मैं अक्स नहीं थी वो आइना कब था

जो जोड़ देता तअ'ल्लुक़ के सब रवाबित को

हमारे बीच कोई ऐसा सिलसिला कब था

वो ज़ीना ज़ीना मिरे दिल में यूँ उतरता गया

मैं रोक पाती उसे मुझ में हौसला कब था

वो ख़ुश-गुमान बहुत था कि मैं हूँ उस की मगर

ये आरज़ू थी फ़क़त मेरा फ़ैसला कब था

वो मेरे ज़ब्त को हर आन आज़माता रहा

मैं संग-ज़ाद हूँ उस को मगर पता कब था

सुना नहीं जो कहा था तो कैसे समझाते

जो उस ने समझा था मेरा वो मुद्दआ' कब था

बहार बन के वो मिलने तो आ गया था मुझे

ठहर भी जाएगा ये उस का फ़ैसला कब था

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