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सारे मंज़र दिलकश थे हर बात सुहानी लगती थी - फ़रह इक़बाल कविता - Darsaal

सारे मंज़र दिलकश थे हर बात सुहानी लगती थी

सारे मंज़र दिलकश थे हर बात सुहानी लगती थी

जीवन की हर शाम हमें तब एक कहानी लगती थी

जिस का चाँद सा चेहरा था और ज़ुल्फ़ सुनहरी बादल सी

मस्त हवा का आँचल थामे एक दिवानी लगती थी

अपने ख़्वाब नए लगते थे और फिर उन के आगे सब

दुनिया और ज़माने की हर बात पुरानी लगती थी

प्यार के मौसम की ख़ुशबू से ग़ुंचा ग़ुंचा महका था

महकी महकी दुनिया सारी रात की रानी लगती थी

लम्हों के रंगीन ग़ुबारे हाथ से छूटे जाते थे

मौसम दुख का दर्द की रुत सब आनी-जानी लगती थी

क़ौस-ए-क़ुज़ह की बारिश में ये जज़्बों की मुँह ज़ोर हवा

मौज उड़ाते बल खाते दरिया की रवानी लगती थी

अब देखें तो दूर कहीं पर यादों की फुलवारी में

रंगों से भरपूर फ़ज़ा थी जो लाफ़ानी लगती थी

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