राख उड़ती हुई बालों में नज़र आती है
राख उड़ती हुई बालों में नज़र आती है
उम्र गुज़रे हुए सालों में नज़र आती है
जब भी खोला है ये माज़ी का दरीचा मैं ने
कोई तस्वीर ख़यालों में नज़र आती है
शाम के साथ जो जादू हो निगाहों का तिरी
शाम वैसी मिरे गालों में नज़र आती है
बस्ती दिल में जहाँ रोज़ था हंगामा नया
वो भी उजड़े हुए हालों में नज़र आती है
कभी तन्हाई जो रातों को सताती थी हमें
अब वही दिन के उजालों में नज़र आती है
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