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मुद्दतों हम से मुलाक़ात नहीं करते हैं - फ़रह इक़बाल कविता - Darsaal

मुद्दतों हम से मुलाक़ात नहीं करते हैं

मुद्दतों हम से मुलाक़ात नहीं करते हैं

अब तो साए भी कोई बात नहीं करते हैं

दश्त-ए-हैराँ का पता आज भी मालूम नहीं

अब तो राहों में भी हम रात नहीं करते हैं

माबदों में जो जलाते थे दिए मेरे लिए

अब सर-ए-शाम मुनाजात नहीं करते हैं

बाँट देते हैं सभी ख़्वाब सुहाने अपने

दामन-ए-दर्द से ख़ैरात नहीं करते हैं

रोक लेते थे जो जंगल में वो आसेब भी अब

चुप ही रहते हैं सवालात नहीं करते हैं

वो जो बरसे थे इनायात के बादल हम पर

वो भी अब पहली सी बरसात नहीं करते हैं

कितने बरहम थे 'फ़रह' टूट के जब बिखरे थे

आज-कल हम भी शिकायात नहीं करते हैं

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