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मोहब्बत का दिया ऐसे बुझा था - फ़रह इक़बाल कविता - Darsaal

मोहब्बत का दिया ऐसे बुझा था

मोहब्बत का दिया ऐसे बुझा था

हवा के दोश पर रक्खा हुआ था

सितारा टूट कर जब भी गिरा था

अजब धड़का सा दिल को लग गया था

अजब वहशत थी तेरे आइने में

जहाँ हर अक्स ही टूटा हुआ था

लिपट कर चाँद से रोने लगा था

सितारा टूट कर डर सा गया था

उसे थी चाँद तारों की तलब और

हमारे पास तो बस इक दिया था

हज़ारों रंग थे इक आरज़ू के

मगर मुझ को तो उस ने ख़ुद चुना था

किसी अहद-ए-वफ़ा का हाथ थामे

कोई इक मोड़ पर रोता रहा था

किसी को दोश क्या दें डूबने का

भँवर जो पाँव से लिपटा हुआ था

अजब बे-फ़ैज़ थी ये भी मोहब्बत

बहारों में ख़िज़ाँ का रूप सा था

उधर से धूप को आने ना दूँगा

तुझे कुछ याद है तू ने कहा था

वही तिश्ना-लबी आँखों में सहरा

वही मिज़्गाँ पे इक आँसू धरा था

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