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कैसे मंज़र हैं जो इदराक में आ जाते हैं - फ़रह इक़बाल कविता - Darsaal

कैसे मंज़र हैं जो इदराक में आ जाते हैं

कैसे मंज़र हैं जो इदराक में आ जाते हैं

जैसे मोती किसी पोशाक में आ जाते हैं

मैं झटकती हूँ सभी ज़ेहन से ये वहम-ओ-गुमाँ

फिर भी अक्सर ये मिरी ताक में आ जाते हैं

जैसा भेजा है मुझे आप ने पैग़ाम-ए-वफ़ा

ऐसे नामे तो कई डाक में आ जाते हैं

अपनी हस्ती पे गुमाँ इतना न कीजे साहब

पैकर-ए-ख़ाक तो फिर ख़ाक में आ जाते हैं

जिन को आँखों में बसाने की इजाज़त भी नहीं

वो तसव्वुर दिल-ए-बेबाक में आ जाते हैं

नहीं होते हैं जो चेहरे से अयाँ रंज-ओ-अलम

वो सभी सीना-ए-सद-चाक में आ जाते हैं

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