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कहीं यक़ीं से न हो जाएँ हम गुमाँ की तरह - फ़रह इक़बाल कविता - Darsaal

कहीं यक़ीं से न हो जाएँ हम गुमाँ की तरह

कहीं यक़ीं से न हो जाएँ हम गुमाँ की तरह

सँभाल कर हमें रखिए मता-ए-जाँ की तरह

जिसे सदफ़ की तरह आँख में छुपाया था

वो खो न जाए कहीं अश्क-ए-राएगाँ की तरह

हमें भी ख़ौफ़-ए-तलातुम ने घेर रखा था

खुला नहीं था अभी वो भी बादबाँ की तरह

निसाब-ए-इश्क़ में सारे सवाल मुश्किल थे

मोहब्बतें भी थीं दरपेश इम्तिहाँ की तरह

खुले जो लब तो उन्ही आइनों में हैरत थी

जो देखते थे हमें अक्स-ए-बे-ज़बाँ की तरह

जहाँ मिली थीं कभी ख़ुशबुएँ हवाओं से

महक रहा था वो जंगल भी गुलिस्ताँ की तरह

हुनर-वरी है हमारी कि अपने ख़्वाबों से

क़फ़स भी हम ने सजाया था आशियाँ की तरह

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