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हमें तो साथ चलने का हुनर अब तक नहीं आया - फ़रह इक़बाल कविता - Darsaal

हमें तो साथ चलने का हुनर अब तक नहीं आया

हमें तो साथ चलने का हुनर अब तक नहीं आया

दिया अपने मुक़द्दर का नज़र अब तक नहीं आया

थीं जिस बादल के रस्ते पर हवा की मुंतज़िर आँखें

वो शहरों तक तो आया था इधर अब तक नहीं आया

न जाने जंगलों में हम मिले कितने दरख़्तों से

घना जिस का लगे साया शजर अब तक नहीं आया

तज़ब्ज़ुब के अँधेरों में भटकता है वो इक वा'दा

पलट कर जिस को आना था वो घर अब तक नहीं आया

सजाना छोड़ दे फूलों को इन चाँदी से बालों में

फ़लक पर वो सितारा इक अगर अब तक नहीं आया

भुला कर बस ज़रा सी देर सज्दों की इबादत को

ये सोचो क्यूँ दुआओं में असर अब तक नहीं आया

जहाँ लाखों मोहब्बत के चराग़ों से उजाला हो

'फ़रह' रौशन किसी दिल का वो दर अब तक नहीं आया

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