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एक मुद्दत से यहाँ ठहरा हुआ पानी है - फ़रह इक़बाल कविता - Darsaal

एक मुद्दत से यहाँ ठहरा हुआ पानी है

एक मुद्दत से यहाँ ठहरा हुआ पानी है

दश्त-ए-तन्हाई है और आँख में वीरानी है

देखो ख़ामोश सी झीलों के किनारे अब भी

सोग में लिपटे दरख़्तों की फ़रावानी है

आइना देखने की ताब कहाँ थी मुझ में

साफ़ लिक्खी थी जो चेहरे पे पशेमानी है

दश्त-ए-वहशत में चराग़ों को जलाऊँ कैसे

इन चराग़ों से हवाओं को परेशानी है

साया-ए-अब्र-ए-तवज्जोह की ख़बर क्या होती

ज़िंदगी मैं ने तो सहराओं से पहचानी है

अपने माज़ी को मुझे दफ़्न भी ख़ुद करना है

ये क़यामत भी दिल-ओ-जाँ पे अभी ढानी है

अब के चमका है सितारा जो 'फ़रह' बख़्त का है

तिरे अतराफ़ उसी की है जो ताबानी है

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