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कभी यक़ीं से हुई और कभी गुमाँ से हुई - फ़राग़ रोहवी कविता - Darsaal

कभी यक़ीं से हुई और कभी गुमाँ से हुई

कभी यक़ीं से हुई और कभी गुमाँ से हुई

तिरे हुज़ूर रसाई कहाँ कहाँ से हुई

फ़लक न माह-ए-मुनव्वर न कहकशाँ से हुई

खुली जब आँख मुलाक़ात ख़ाक-दाँ से हुई

न फ़लसफ़ी न मुफ़क्किर न नुक्ता-दाँ से हुई

अदा जो बात हमेशा तिरी ज़बाँ से हुई

खुली न मुझ पे भी दीवानगी मिरी बरसों

मिरे जुनून की शोहरत तिरे बयाँ से हुई

जो तेरे नाम से मंसूब मेरा नाम हुआ

तो शहर भर को अदावत भी मेरी जाँ से हुई

सुना के सब को अकेला ही रो रहा था मैं

किसी की आँख न तर मेरी दास्ताँ से हुई

जिन्हें था डूबना उन को भी दे दिया रस्ता

कभी कभी ये ख़ता बहर-ए-बे-कराँ से हुई

'फ़राग़' हाथ से क्या दामन-ए-ख़िरद छूटा

कि सर पे संग की बारिश जहाँ-तहाँ से हुई

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