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जो भी अंजाम हो आग़ाज़ किए देते हैं - फ़राग़ रोहवी कविता - Darsaal

जो भी अंजाम हो आग़ाज़ किए देते हैं

जो भी अंजाम हो आग़ाज़ किए देते हैं

मौसमों को नज़र-अंदाज़ किए देते हैं

कुछ तो पहले से था रग रग में शुजाअत का सुरूर

कुछ हमें आप भी जाँ-बाज़ किए देते हैं

हद से आगे जो परिंदे नहीं उड़ने वाले

हादसे उन को भी शहबाज़ किए देते हैं

दश्त ओ सहरा ये समुंदर ये जज़ीरे ये पहाड़

मुन्कशिफ़ हम पे कई राज़ किए देते हैं

शब-ए-ज़ुल्मत न हो ग़मगीं कि जला कर ख़ुद को

नूर से तुझ को सर-अफ़राज़ किए देते हैं

शहर-ए-जाँ पर कई बरसों से मुसल्लत है जुमूद

छेड़ कर दिल को चलो साज़ किए देते हैं

हम कि ज़िंदा हैं अभी ज़ुल्फ़-ए-ग़ज़ल आ तुझ को

फिर अता निकहत-ए-शीराज़ किए देते हैं

कौन आता है अयादत के लिए देखें 'फ़राग़'

अपने जी को ज़रा ना-साज़ किए देते हैं

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