दिन में भी हसरत-ए-महताब लिए फिरते हैं
दिन में भी हसरत-ए-महताब लिए फिरते हैं
हाए क्या लोग हैं क्या ख़्वाब लिए फिरते हैं
हम कहाँ मंज़र-ए-शादाब लिए फिरते हैं
दर-ब-दर दीदा-ए-ख़ूँ-नाब लिए फिरते हैं
वो क़यामत से तो पहले नहीं मिलने वाला
किस लिए फिर दिल-ए-बेताब लिए फिरते हैं
हम से तहज़ीब का दामन नहीं छोड़ा जाता
दश्त-ए-वहशत में भी आदाब लिए फिरते हैं
सल्तनत हाथ से जाती रही लेकिन हम लोग
चंद बख़्शे हुए अलक़ाब लिए फिरते हैं
एक दिन होना है मिट्टी का निवाला फिर भी
जिस्म पर अतलस-ओ-कमख़्वाब लिए फिरते हैं
हम-नवाई कहाँ हासिल है किसी की मुझ को
हम-नवाओं को तो अहबाब लिए फिरते हैं
किस लिए लोग हमें सर पे बिठाएँगे फ़राग़
हम कहाँ के पर-ए-सुरख़ाब लिए फिरते हैं
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