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ज़ब्त अपना शिआर था न रहा - फ़ानी बदायुनी कविता - Darsaal

ज़ब्त अपना शिआर था न रहा

ज़ब्त अपना शिआर था न रहा

दिल पे कुछ इख़्तियार था न रहा

दिल-ए-मरहूम को ख़ुदा बख़्शे

एक ही ग़म-गुसार था न रहा

आ कि वक़्त-ए-सुकून-ए-मर्ग आया

नाला ना-ख़ुश-गवार था न रहा

उन की बे-मेहरियों को क्या मालूम

कोई उम्मीद-वार था न रहा

आह का ए'तिबार भी कब तक

आह का ए'तिबार था न रहा

कुछ ज़माने को साज़गार सही

जो हमें साज़गार था न रहा

अब गरेबाँ कहीं से चाक नहीं

शुग़्ल-ए-फ़स्ल-ए-बहार था न रहा

मौत का इंतिज़ार बाक़ी है

आप का इंतिज़ार था न रहा

मेहरबाँ ये मज़ार-ए-'फ़ानी' है

आप का जाँ-निसार था न रहा

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