वो मश्क़-ए-ख़ू-ए-तग़ाफ़ुल फिर एक बार रहे
वो मश्क़-ए-ख़ू-ए-तग़ाफ़ुल फिर एक बार रहे
बहुत दिनों मिरे मातम में सोगवार रहे
ख़ुदा की मार जो अब दिल पे इख़्तियार रहे
बहुत क़रार के पर्दे में बे-क़रार रहे
किसी ने वादा-ए-सब्र-आज़मा किया तो है
ख़ुदा करे कि मुझे ताब-ए-इंतिज़ार रहे
फ़ना के बाद ये मजबूरियाँ अरे तौबा
कोई मज़ार में कोई सर-ए-मज़ार रहे
सुकून-ए-मौत मिरी लाश को नसीब नहीं
रहे मगर कोई इतना न बे-क़रार रहे
मैं कब से मौत के इस आसरे पे जीता हूँ
कि ज़िंदगी मिरी मरने की यादगार रहे
जो दिल बचा न सके जान क्या बचा लेंगे
न इख़्तियार रहा है न इख़्तियार रहे
मैं ग़म-नसीब वो मजबूर-ए-शौक़ हूँ 'फ़ानी'
जो ना-मुराद जिए और उम्मीद-वार रहे
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